दीया जलाए कोई... पुण्य कमाएं लक्ष्मी माता! 8 साल में ढाई लाख आटे के दीये बनाकर बांटे, अद्भुत है कहानी
मध्य प्रदेश के खरगोन की लक्ष्मीबाई चौहान (लक्ष्मी माता) विगत 8 वर्षों से आटे के दीए बना रही हैं. वह हर दिन 100 से 150 दिए बनाती हैं. अब तक करीब ढाई लाख से ज्यादा आटे के दीए बनाकर लोगों को फ्री में बांट चुकी हैं. 16 फरवरी को नर्मदा जन्मोत्सव पर भी वह करीब 4-5 हजार दीए लोगों को फ्री में बांटेंगी.
करीब 60 वर्षीय लक्ष्मी माता धार जिले के धामनोद की रहने वाली हैं. 40 वर्ष से वह अपने घर नहीं गईं. नर्मदा तट पर भोलेनाथ और मां नर्मदा की सेवा में जुटी हैं. 15 वर्ष से कसरावद तहसील के ग्राम नावड़ातोड़ी में नर्मदा नदी के किनारे स्थित शालिवाहन मंदिर परिसर में एक कुटिया में रह रही हैं. गुजर-बसर के लिए लोगों से मांगकर खाती हैं.
परिक्रमा वासियों को भी देती हैं दीए
क्षेत्र में लोग उन्हें लक्ष्मीमाता के नाम से जानते हैं. दिनभर वह आटे से दीया बनाती हैं. मंदिर में परिक्रमा वासी रात्रि विश्राम के लिए रुकते हैं. इस दौरान सुबह-शाम नर्मदा पूजन और दीपदान के लिए लक्ष्मीबाई उन्हें अपने बनाए हुए आटे के दीए देती हैं. इस दीये के लिए वह किसी से एक रुपये भी नहीं लेतीं.
ऐसे बनाती हैं दीए
अमावस्या और पूर्णिमा पर बड़ी संख्या में लोग नर्मदा में दीप प्रवाहित करते हैं. उन तमाम लोगों को लक्ष्मीबाई आटे के दीये उपलब्ध कराती हैं. यह दिए काफी मजबूत और मोटे होने से अधिक दूरी तक बहते हैं. दीए बनाने के लिए वह गेहूं के आटे में चावल, पीसी हुई दाल को भी मिक्स करती हैं.
इसलिए फ्री में बांटती हैं दीये
लक्ष्मीबाई ने बताया कि लोगों को दोने में दीपदान करते देखा. इसे रोकने के लिए ही उन्होंने आटे के दीए बनाकर फ्री में देना शुरू किया. उन्होंने कहा कि आटे से बने दीये नर्मदा के जल को प्रदूषण से बचाते हैं. बाती बुझ जाने पर दीये से मछलियों और जलीय जीवों की भूख भी मिटती है.
यहां से मिली प्रेरणा
नर्मदा नदी के किनारे कपड़ा बिछाकर दान मांगने बैठी थीं. दान में उन्हें करीब 50 किलो गेहूं मिल गए. इतना गेहूं कैसे खाएंगी सोच ही रही थी. तभी नर्मदा किनारे उन्हें मिट्टी से बना दीया मिला था. मन में आया कि अब इसी दीये के आकार में दान में मिलने वाले गेहूं और आटे से दीए बनाकर लोगों को दूंगी.
भगवान ने दिए दर्शन
बताया कि घर में आटा खत्म हो गया था. शाम के समय जब वह निराश अपनी कुटिया में बैठी थी, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाजा खोला तो बड़ी-बड़ी जटाओं में एक साधु थे. पूछने पर उन्होंने खुद को शिव बताया. एक मुट्ठी पीले चावल दिए और कहा चिंता मत करो मैं हूं. उस दिन के बाद कभी घर में आटे की कमी नहीं हुई. उनका मानना है कि वह सच में भगवान शिव ही थे.