54 साल बाद हिंदुओं के पक्ष में आया फैसला, ज्ञानवापी के बाद लाक्षागृह भी हिंदुआ का हुआ, तीर्थ के ऊपर बना दिया था कब्रिस्तान
बागपत। उत्तर प्रदेश के न्यायालय में 54 साल तक मामला चलने के बाद आखिरकार बरनावा लाक्षागृह हिंदुओं का हो गया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद न्यायाधीश ने सोमवार को ये फैसला सुनाया। न्यायालय ने 32 पेज पर 104 बिंदुओं में फैसला दिया। जिसमें न्यायाधीश ने आखिर में केवल इतना लिखा कि वादी वाद साबित करने में असफल रहे और इसे निरस्त किया जाता है।ज्ञात हो कि हिंदू पक्ष के अधिवक्ता रणवीर सिंह तोमर वर्ष 1997 से इस मुकदमे को लड़ रहे हैं। उनके अनुसार, इसमें शुरूआत से अभी तक 875 तारीख लगी है। इसमें दोनों पक्षों से 12 गवाह रहे। वादी पक्ष से मुकीम खान ने सबसे पहले याचिका दायर की और उनकी मौत के बाद खैराती खान व अहमद खान ने मरने तक पैरवी की तो अब खालिद खान पैरवी कर रहे थे।इस तरह ही प्रतिवादी पक्ष में शुरूआत में कृष्णदत्त रहे और उनकी मौत के बाद हर्रा गांव के छिद्दा सिंह, बरनावा के जगमोहन, बरनावा के जयकिशन महाराज ने पैरवी की। इन सभी की मौत हो चुकी है। वहीं, अब मेरठ की पंचशील कॉलोनी में रहने वाले राजपाल त्यागी व जयवीर, बरनावा के आदेश व विजयपाल कश्यप पैरवी कर रहे थे। यह सभी इस मामले में गवाह भी रहे।बागपत के बरनावा में स्थित महाभारतकालीन लाक्षागृह पर चल रहे विवाद में 53 वर्ष बाद सोमवार को हिंदुओं के पक्ष में फैसला आया। सुनवाई के बाद न्यायाधीश ने मुस्लिम पक्ष के उस दावे को खारिज कर दिया, जिसमें उसने लाक्षागृह की 100 बीघा जमीन को शेख बदरूद्दीन की मजार और कब्रिस्तान बताया था। मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में अपीलबात कही है। बरनावा में स्थित लाक्षागृह टीले की 100 बीघा जमीन को लेकर हिंदू व मुस्लिम पक्ष के बीच पिछले 53वर्षों से विवाद चल रहा है। 31 मार्च 1970 में मेरठ के सरधना की कोर्ट में बरनावा निवासी मुकीम खान ने वक्फ बोर्ड के मुतवल्ली की हैसियत से एक वाद दायर कराया था।इसमें लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रह्मचारी कृष्णदत्त उर्फ स्वामी को प्रतिवादी बनाया गया था। सोमवार को मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई और सिविल जज जूनियर डिवीजन प्रथम शिवम द्विवेदी ने मुकदमे में फैसला सुनाते हुए मुस्लिम पक्ष के दावे को खारिज कर दिया।