रामायण में वानरराज बालि की पत्नी तारा का प्रसंग

रामायण में वानरराज बालि की पत्नी तारा का प्रसंग

भारतीय पौराणिक वाङ्मय में इन पंच महाकन्याओं का नित्य प्रात:काल उठकर इनका नाम (स्मरण) लेने मात्र से ही व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। पौराणिक साहित्य एवं कथाओं में तारा के नाम से दो महिलाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक देवताओं के देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा और दूसरी महाबली वानर राजा बालि की पत्नी तारा। अत: इन दोनों में से किस तारा की गणना पंच महाकन्याओं में की गई है? इस सम्बन्ध में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों ने दोनों को ही इन पंच महाकन्याओं में सम्मिलित किया है तथा उसे ठीक भी मानते हैं। यह देखा गया है कि दोनों में कुछ साम्य है। देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का सम्बन्ध उनके पति के अतिरिक्त चन्द्रमा से भी बताया गया है। जबकि इस आलेख की तारा का पारिवारिक सम्बन्ध सर्वप्रथम वानर राजा बालि के साथ था। यह तारा सुषेण वानर की पुत्री थी। यह सुषेण वरुण का पुत्र था-

वरुणो जनयामास सुषेणं नाम वानरम्।

वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग १७-१५

वरुण ने सुषेण नामक वानर को उत्पन्न किया।

बालि के वध उपरान्त तारा का पारिवारिक सम्बन्ध उसके छोटे भाई सुग्रीव के साथ वर्णित है। इससे सामान्य व्यक्ति को तारा की पवित्रता मानने में थोड़ी कठिनाई होती है। अत: यहाँ रामायण की तारा की महत्ता को समझाने का प्रयास वाल्मीकि रामायण के आधार पर किया जा रहा है।

तारा के प्रसंग के सन्दर्भ में महर्षि वाल्मीकिजी के द्वारा प्रयुक्त शब्द को प्रसंग और घटना के आधार पर देखने से आसानी से समझा जा सकता है।

श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता के उपरान्त श्रीराम ने सुग्रीव से कहा कि- तुम सुवर्णमालाधारी बालि (वाली) को बुलाने के लिए इस समय ऐसी गर्जना करो जिससे तुम्हारा सामना करने के लिए वह वानर नगर (किष्किन्धा) से बाहर निकल आए। उस समय अमर्षशील बालि अपने अन्त:पुर में था। उसने अपने भाई महामना सुग्रीव का वह सिंहनाद वहीं से सुना।

श्रुत्वा तु तस्य निनदं सर्वभूत कम्पनम्।

मदश्चैकपदे नष्ट: क्रोधश्चापादितो महान्।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड १५-२

समस्त प्राणियों को कम्पित कर देने वाली उनकी (सुग्रीव की) वह गर्जना सुनकर बालि का सारा मद सहसा उतर गया और उसे महान क्रोध उत्पन्न हुआ।

बालि दु:सह शब्द सुनकर अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को विदीर्ण सी करता हुआ वेग से निकला।

इस घटनाक्रम के प्रसंग से तारा का बालि से प्रथम संवाद रामायण में वर्णित है। उस समय बालि की पत्नी तारा भयभीत हो घबरा उठी। उसने बालि को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया और स्नेह से सौहार्द्र का परिचय देते हुए परिणाम में हित की यह बात कही-

साधु: क्रोधमिमं वीर नदीवेगमिवागतम्।

शयनादुत्थित: काल्यं त्यज भुक्तामिव स्त्रजम्।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १५-७

वीर! मेरी अच्छी बात सुनिये और सहसा आए हुए नदी के वेग की भाँति इस बढ़े हुए क्रोध को त्याग दीजिए जैसे प्रात:काल शय्या से उठा हुआ पुरुष रात को उपभोग में लाई गई पुष्पमाला का त्याग कर देता है, उसी प्रकार इस क्रोध का परित्याग कीजिए।

तदनन्तर तारा बालि से कहती है कि वानरवीर कल प्रात:काल सुग्रीव के साथ युद्ध कीजियेगा। इस समय रूक जाइए। यद्यपि युद्ध में कोई शत्रु आपसे बढ़कर नहीं है और आप किसी से छोटे नहीं हैं। तथापि इस समय एकाएक आपका घर से बाहर निकलना मुझे अच्छा नहीं लगता है, आपको रोकने का एक विशेष कारण भी है। उसे बताती हूँ सुनिये- सुग्रीव पहले भी यहाँ आए थे और क्रोधपूर्वक उन्होंने आपको युद्ध के लिए ललकारा था। उस समय नगर से निकलकर उन्हें आपने परास्त किया और वे आपकी मार खाकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भागते हुए मतंग वन में चले गए थे। उनकी पराजय उपरान्त पुन: यहाँ आकर आपको युद्ध के लिए ललकारना मेरे मन में शंका उत्पन्न कर रहा है।

नासहायमहं मन्ये सुग्रीवं तमिहागतम्।

अवष्टब्धसहायश्च यमानिश्चत्यैष गर्जति।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १५-१३

मैं समझती हूँ कि सुग्रीव किसी प्रबल (शक्तिशाली) सहायक के बिना अबकी बार यहाँ नहीं आए हैं। किसी सबल सहायक को साथ लेकर ही आए हैं जिसके बल पर ये गरज रहे हैं।

तारा दूरदर्शी, बुद्धिमान, साहसी, विदूषी और अपने परिवार की हितचिन्तक भी थी। अत: वह पुन: बालि से कहती है कि वानर सुग्रीव स्वभाव से ही कार्यकुशल और बुद्धिमान हैं। वे किसी ऐसे पुरुष के साथ मैत्री नहीं करेंगे, जिसके बल और पराक्रम को अच्छी तरह परख न लिया हो। मैंने पहले भी कुमार अंगद के मुख से यह बात सुन ली है। इसलिए आज मैं आपके हित की बात बताती हूँ। एक दिनकुमार अंगद वन में गए थे। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें यह समाचार बताया जो उन्होंने यहाँ आकर मुझसे भी कहा था।

अयोध्याधिपते: पुत्रौ शूरौ समरदुर्जयौ।

इक्ष्वाकूणां कुले जातौ प्रथितौ रामलक्ष्मणो।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १५-१७

वह समाचार इस प्रकार है- अयोध्या नरेश के दो शूरवीर पुत्र जिन्हें युद्ध में जीतना अत्यन्त कठिन है जिनका जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ है तथा जो श्रीराम और लक्ष्मण के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहाँ वन में आये हुए हैं।

वे दोनों दुर्जय वीर सुग्रीव का प्रिय करने के लिए उनके पास पहुँच गए हैं। उन दोनों में से जो आपके भाई के युद्ध में सहायक बताए गए हैं वे श्रीराम शत्रु सेना का संहार करने वाले हैं, शूरवीर! मैं आपके लिए यही उचित समझती हूँ कि आप वैरभाव को दूर हटाकर श्रीराम के सौहार्द्र और सुग्रीव के साथ प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कीजिए। वानर सुग्रीव आपके छोटे भाई हैं। वे लाड़-प्यार पाने के योग्य हैं, वे ऋष्यमूक पर रहें या किष्किन्धा में सर्वथाआपके बन्धु ही हैं। मैं इस भूतल पर उनके समान बन्धु और किसी को नहीं देखती हूँ। आप दान-मान आदि संस्कारों के द्वारा उन्हें अपना अत्यन्त अन्तरंग बना लीजिए, जिससे वे बैरभाव को त्याग कर आपके पास रह सकें। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हो तथा आप मुझे अपनी हितकारिणी समझते हो तो मैं प्रेमपूर्वक याचना कर रही हूँ। यह मेरी आपको नेक सलाह है, इसे मान लीजिए। रोष त्याग दीजिए तथा यह समझदारी, दूरदर्शिता और संयम उनके विचारशील चरित को दर्शाते हैं। श्रीराम इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके साथ वैर बाँधना या युद्ध छेड़ना आपके लिए कदापि उचित नहीं है किन्तु तारा की बात उसे ठीक (उचित) नहीं लगी क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था और बालि काल के पाश में बँध चुका था।

बालि ने तारा को फटकार लगाते हुए कहा- यह हीन ग्रीवावाला सुग्रीव संग्राम भूमि में मेरे साथ युद्ध की इच्छा रखता है। मैं इसके रोषावेश और गर्जन-तर्जन को सहन करने में असमर्थ हूँ। श्रीराम की बात सोचकर भी तारा तुम्हें मेरे लिए विषाद नहीं करना चाहिए क्योंकि वे धर्म के ज्ञाता तथा कर्तव्याकर्तव्य को समझने वाले हैं। अत: आप कैसे करेंगे। तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ। मैं आगे बढ़कर सुग्रीव का सामना करूँगा। उसके घमण्ड को चूर-चूर कर आऊँगा। किन्तु सुग्रीव के प्राण नहीं लूँगा। युद्ध के मैदान में खड़े हुए सुग्रीव की जो-जो इच्छा है, उसे मैं पूर्ण करूँगा। वृक्षों और मुक्कों की मार से पीड़ित होकर वह स्वयं ही भाग जाएगा। तारा तुमने मेरी बौद्धिक सहायता अच्छी तरह कर दी और मेरे प्रति अपना सौहार्द्र भी दिखा दिया। अब तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ।

तं तु तारा परिष्वज्य वालिनं प्रियवादिनी।

चकार रुदन्ती मन्दं दक्षिणा सा प्रदक्षिणम्।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १६-१1

यह सुनकर अत्यन्त उदार स्वभाव वाली तारा ने बालि का आलिङ्गन करके मन्द स्वर में रोते-रोते हुए उसकी परिक्रमा की।

वह पति की विजय चाहती थी और उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। अत: उसने बालि की मंगल कामना से स्वतिवाचन किया और शोक से भरी हुई वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्त:पुर चली गई। तदनन्तर तारा का पुन: आगमन उस समय होता है जब वह सुनती है कि युद्धस्थल में वानर श्रेष्ठ बालि श्रीराम के चलाए हुए बाण से आहत हुए। तब वह कहती हैं कि अब मुझे पुत्र से राज्य तथा अपने इस जीवन से भी क्या प्रयोजन? मैं तो जिन्हें श्रीराम के चलाए हुए बाण से मार गिराया है, उन महात्मा बालि के चरणों के समीप ही जाऊँगी। आगे जाने पर उसने देखा अपने तेजस्वी धनुष को धरती पर टेककर उसके सहारे श्रीरामचन्द्रजी खड़े हैं। साथ ही उनके छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं और वही पति के छोटे भाई सुग्रीव भी हैं। तारा पति को रणभूमि में घायल पड़े देखकर उनके पास जाने पर पृथ्वी पर गिर पड़ी। वह विलाप करते हुए बोल रही थी कि वानरेन्द्र! मैं सदैव आपका हित चाहती थी और आपके कल्याण साधन में ही लगी रहती थी तो भी मैंने आपसे जो भी हितकर बात कही थी, मोहवश आपने नहीं माना और उलटे मेरी ही निन्दा की। तारा को आकाश से टूट कर गिरी हुई तारिका के समान पृथ्वी पर पड़ी देखकर हनुमान्जी ने धीरे-धीरे समझाया। देवि! जीव के द्वारा गुणबुद्धि से अथवा दोष बुद्धि से किए हुए जो अपने कर्म है। वे ही सुख-दु:ख रूप फल की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। परलोक में जाकर प्रत्येक जीव शान्त भाव से रहकर अपने शुभ और अशुभ सभी कर्मों का फल भोगता है। हे भामिनि! ये अंगद और सुग्रीव दोनों ही शोक से संतप्त हो रहे हैं। तुम भावी कार्य के लिए इन्हें प्रेरित करो। तुम्हारे अधीन रहकर अंगद इस पृथ्वी का शासन करें। तारा हनुमानजी से कहती हैं कि मेरे लिए वानर-राज बालि का अनुगमन करने से बढ़कर लोक या परलोक में कोई भी कार्य उचित नहीं है।

बालि के प्राणों की गति शिथिल पड़ गई थी। वह धीरे-धीरे उर्ध्व साँस लेते हुआ सब ओर देख रहा था। वह सुग्रीव से अंगद के बारे में बोला-

मम प्राणै: प्रियतरं पुत्रं पुत्रमिवौरसम्।

मया हीनमहीनार्थं सर्वत: परिपालय।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग २२-९

यह (अंगद) मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है। मेरे न रहने पर तुम इसे सगे पुत्र की भाँति मानना। इसके लिए किसी भी सुख-सुविधा की कमी न होने देना और सदा सब जगह इसकी रक्षा करते रहना।

तदनन्तर तारा के बारे में भी अंगद से इस प्रकार कहा-

सुषेणदुहिता चेयमर्थसूक्ष्मविनिश्चये।

औत्पात्तिके च विविध सर्वत: परिनिष्ठता।।

यदेषा साध्विति ब्रूयात कार्यं तन्मुक्तसंशयम्।

नहि तारामतं किंचिदन्यथा परिवर्तते।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग २२-१३-१४

सुषेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्म विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिन्हों को समझने में सर्वथा निपुण है। जिस कार्य को अच्छा बताए, उसे सन्देहरहित हाकर करना। तारा की किसी भी सम्मति का परिणाम कभी भी उलटा नहीं होता है।

इस प्रकार तारा के गुणों का बालि द्वारा यहाँ संक्षिप्त वर्णन किया गया है जो कि तारा के एक विदूषी, दूरदर्शी, चरित्रवान महिला होने का परिचय स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा कहते-कहते बाण के आघात से घायल हुए बालि की आँखें घूमने लगी। उसके भयंकर दाँत खुल गए और प्राण-पखेरू उड़ गए। तदनन्तर शोक के समुद्र में डूबी हुई तारा ने अपने मरे हुए स्वामी की ओर दृष्टिपात किया तब वह बालि का आलिङ्गन करके कटे हुए वृक्ष से लिपटी हुई लता की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ी। तारा कहती है कि आपकी छाती में बाण धँसा है, वह मुझे आपके शरीर का आलिङ्गन करने से रोक रहा है, इस कारण आपको मृत्यु हो जाने पर भी चुपचाप देख रही हूँ।

तारा जब पति के समीप से हटाई जाने लगी, तब बारंबार उसका आलिङ्गन करती हुई वह अपने को छुड़ाने के समय छटपटाने लगी। इतने में ही उसने अपने सामने धनुष बाण धारण किए श्रीराम को खड़ा देखा जो अपने तेज से सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे। तारा ने श्रीराम से कहा-

येनैव बाणेन हत: प्रियो मे

तेनैव बाणेन हि मां जहीहि।।

हता गमिष्यामि समीपमस्य।

न मां विना वीर रमेत वाली।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग २४-3३

मैं प्रार्थना करती हूँ कि आपने जिस बाण से मेरे प्रियतम पति का वध किया है उसी बाण से आप मुझे भी मार डालिए। मैं मरकर उनके समीप चली जाऊँगी। वीर! मेरे बिना बालि कहीं भी सुखी नहीं रह सकेंगे।

इतना ही नहीं तारा ने श्रीराम से यह भी कहा कि बालि उसी तरह दु:खी, जैसे गिरिराज ऋष्यमूक के सुरम्य तट प्रान्त में विदेह नन्दिनी सीता के बिना आप कष्ट का अनुभव करते हैं। स्त्री के बिना युवा पुरुष को जो दु:ख उठाना पड़ता है। उसे आप अच्छी तरह जानते हैं। अत: इस तत्व को समझ कर आप मेरा वध करिये, जिससे बालि को मेरे विरह का दु:ख न भोगना पड़े। आप महात्मा है इसलिए यदि ऐसा चाहते कि आपको स्त्री हत्या का पाप न लगे तो यह बालि की आत्मा है, ऐसा मानकर-समझकर मेरा वध कीजिए। इससे आपको स्त्री हत्या का पाप नहीं लगेगा।

यह सुनकर श्रीराम ने तारा से कहा- विधाता ने ही इसे सारे जगत् को सुख-दु:ख से संयुक्त किया है। साधारण लोग भी कहते हैं और मानते हैं। तीनों लोकों के प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते क्योंकि सभी उसके अधीन हैं। शूरवीरों की स्त्रियाँ इस प्रकार विलाप नहीं करती हैं। इतना श्रीराम द्वारा उसे समझाने पर तारा ने रोना-धोना छोड़ दिया। श्रीराम द्वारा लक्ष्मणजी को भी समझाया जिनकी इस घटना को देखकर विवेक शक्ति नष्ट हो गई थी। लक्ष्मणजी ने बड़ी ही नम्रता से सुग्रीव को कहा अब तुम अंगद और तारा के साथ रहकर बालि का दाह-संस्कार सम्बन्धी कार्य करो। तदनन्तर वानरों के स्वामी राजा सुग्रीव ने आज्ञा दी कि मेरे बड़े भाई का और्द्ध दैहिक संस्कार शास्त्रानुकूल विधि से सम्पन्न किया जाए। तब तारा सहित सब वानरियाँ करुण-स्वर से विलाप करती हुई अपने स्वामी के पीछे-पीछे चलने लगी। पहाड़ी नदी तुंग भद्रा के एकान्त तट पर जो जल से घिरा था, पहुँचकर बहुत से वानरों ने एक चिता तैयार की। तत्पश्चात् तारा ने शिविका में सुलाए हुए अपने पति के शव को देखकर उनके मस्तक को अपनी गोद में ले लिया और अत्यन्त दु:खी होकर विलाप करने लगी।

इसके बाद संताप पीड़ित इन्द्रियों वाले अंगद ने रोते-रोते सुग्रीव की सहायता से पिता को चिता पर रख फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। बालि का दाह-संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी तुंगभद्रा नदी के तट पर आए। वहाँ अंगद को आगे रखकर सुग्रीव और तारा सहित सभी वानरों ने बालि के लिए एक साथ जलाञ्जलि दी। इस प्रकार बालि का दाह संस्कार किया गया।

वर्षा ऋतु समाप्त हो जाने पर तथा शरद ऋतु के आगमन को देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास उसके दिए कार्य के दायित्व के निर्वहन के लिये भेजा। तदनन्तर कई श्रेष्ठ वानरों ने सुग्रीव के महल में जाकर लक्ष्मण के क्रोधपूर्वक आगमन का समाचार निवेदन किया। उस समय काम के अधीन हुए वानरराज सुग्रीव भोगासक्त हो तारा के साथ थे। इसलिए उन्होंने इन श्रेष्ठ वानरों की बातें नहीं सुनी। उसी समय डरते-डरते अंगद लक्ष्मणजी के पास गए। लक्ष्मणजी ने क्रोध से लाल आँखें करके अंगद को आदेश दिया- बेटा! सुग्रीव को मेरी यहाँ आने की सूचना दो। उनसे कहना कि श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण अपने भ्राता के दु:ख से दु:खी होकर आपके पास आए हैं और नगर द्वार पर खड़े हैं। बस इतना कहकर तुम शीघ्र मेरे पास लौट आना। अंगद ने वहाँ से निकलकर पहले वानर सुग्रीव को फिर तारा तथा रूमा के चरणों में प्रणाम किया। अंगद ने पहले तो (सुग्रीव) पिता के दोनों पैर पकड़े फिर अपनी माता तारा के दोनों चरणों का स्पर्श किया। तदनन्तर रूमा के दोनों पैर दबाए। इसके पश्चात् पूर्वोक्त बात कही किन्तु सुग्रीव मदमत्त एवं काम से मोहित होकर पड़े थे। निद्रा ने उनके ऊपर पूरा अधिकार जमा लिया था। इसलिए वे जाग न सके। लक्ष्मण पर दृष्टि पड़ते ही उन वानरों ने भय से महान जल प्रवाह तथा वज्र की गड़गड़ाहट के समान जोर-जोर से सिंहनाद किया जिससे सुग्रीव जाग उठे। सुग्रीव के अंगद के साथ आए दो मंत्री प्लक्ष और प्रभाव ने कहा-

अयं च तनयो राजंस्ताराया दयितोऽङ्गद:।

लक्ष्मणेन सकाशं ते प्रेषितस्त्वरयानघ।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धा सर्ग ३१-४८

राजन! निष्पाप वानरराज! लक्ष्मण ने तारादेवी के इन प्रिय पुत्र अंगद को आपके निकट बड़ी उतावली के साथ भेजा है।

महाराज! आप शीघ्र चलें तथा पुत्र और बन्धु-बान्धवों के साथ उनके चरणों में मस्तक नवावें और इस प्रकार आज लक्ष्मणजी का रोष शान्त करें। सुग्रीव ने कहा कि मैंने न तो कोई अनुचित बात मुँह से निकाली है और न ही कोई बुरा काम ही किया है फिर भी लक्ष्मणजी मुझ पर कुपित क्यों हुए हैं। मैं इस बात पर बारंबार विचार करता हूँ। उसी समय हनुमानजी ने भी सुग्रीव को समझाया और कहा- वानरराज! श्रीराम और लक्ष्मण के आदेश की आपको मन से भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लक्ष्मण सहित श्रीरघुनाथजी के अलौकिक बल का ज्ञान तो आपके मन में हैं ही। अंगद के प्रार्थना करने पर लक्ष्मणजी ने श्रीराम की आज्ञा के अनुसार किष्किन्धा नामक रमणीय गुफा में प्रवेश किया। वानरराज सुग्रीव का सुन्दर भवन इन्द्र के सदन के समान रमणीय दिखाई देता था। उसमें प्रवेश करना किसी के लिए भी कठिन था। वह श्वेत पर्वत की चहार दीवारी से घिरा हुआ था। लक्ष्मणजी ने सुग्रीव के उस अन्त:पुर में अनेक रूपरंग की बहुत सी सुन्दरियाँ देखी, जो रूप और यौवन के गर्व से भरी थी। यह सब देखने के बाद लक्ष्मणजी रोष के आवेग से और भी कुपित हो उठे और उन्होंने अपने धनुष पर टंकार दी जिसकी ध्वनि से समस्त दिशाएँ गूँज उठी।

लक्ष्मणजी बेरोक-टोक भीतर घुस आए। उन पुरुष शिरोमणि को क्रोध से भरा देखकर सुग्रीव की सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठी। सुग्रीव के पास उनकी पत्नी रूमा भी थी। वे स्त्रियों के बीच में खड़े होकर तारिकाओं से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। उन्हें देखकर लक्ष्मणजी ने क्रोधपूर्वक कहा- वानरराज! धैर्यवान, कुलीन, दयालु, जितेन्द्रिय और सत्यवादी राजा ही संसार में आदर प्राप्त करता है।

पूर्वं कृतार्थोे मित्राणां न तत्प्रतिकरोति य:।

कृतघ्र: सर्वभूतानां वध्य: प्लवगेश्वर।।

वाल्मीकिरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १०-८४

वानरराज! जो पहले मित्रों के द्वारा अपना कार्य सिद्ध करके बदले में उन मित्रों का कोई उपकार नहीं करता है, वह कृतघ्न एवं सब प्राणियों के लिए वध्य है।

गो हत्यारे, शराबी, चोर और व्रतभंग करने वाले पुरुष के लिए सत्पुरुषों ने प्रायश्चित का विधान किया है किन्तु कृतघ्न के उद्धार का कोई उपाय नहीं है। यदि तुम महोदय श्रीरघुनाथजी के किए हुए उपकार को नहीं समझोगे तो शीघ्र ही उनके तीखे बाणों से मारे जाकर बालि का दर्शन करोगे। लक्ष्मणजी जब उपर्युक्त बात कह चुके तब चन्द्रमुखी तारा उनसे बोली- आपको सुग्रीव से ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। ये वानरों के राजा हैं। अत: इनके प्रति कठोर वचन बोलना उचित नहीं है। हे वीर! कपिराज सुग्रीव न कृतघ्न हैं न शठ हैं न क्रूर हैं न असत्यवादी हैं और न कुटील। सुमित्रानन्दन! श्रीरामचन्द्रजी के कृपा प्रसाद से ही सुग्रीव ने वानरों के अक्षय राज्य को, यश को, रूमा को तथा मुझको प्राप्त किया है। पहले इन्होंने बड़ा दु:ख उठाया है अब इस उत्तम सुख को पाकर ये इसमें ऐसे रम गए कि इन्हें प्राप्त हुए समय का ज्ञान ही नहीं रहा। ठीक उसी प्रकार जैसे विश्वामित्र मुनि को मेनका में आसक्त हो जाने के कारण समय की सुध-बुध नहीं रह गई थी। धर्मज्ञ! मैं एकाग्र हृदय में सुग्रीव के लिए आपसे कृपा की याचना करती हूँ। आप क्रोध से उत्पन्न हुए इस महान क्षोभ का परित्याग कीजिए।

आपकी सहायता के लिए सुग्रीव ने बहुत से श्रेष्ठ वानरों को युद्ध के निमित्त असंख्य वानर वीरों की सेना एकत्र करने के लिए भेज रखा है। वानर राज सुग्रीव उन महाबली और पराक्रमी वीरों के आने की प्रतीक्षारत है। अतएव श्रीरामजी का कार्य सिद्ध करने के लिए अभी नगर से बाहर नहीं निकल सके हैं। सुमित्रानंदन! इतना ही नहीं सुग्रीव ने सबके एकत्र होने के लिए पहले से ही जो अवधि निश्चित कर रखी है, उसके अनुसार उन समस्त महाबली वानरों को आज ही यहाँ उपस्थित हो जाना चाहिए। आज आपकी सेवा में कोटि सहस्त्र (दस अरब) रीछ, सौ करोड़ (एक अरब) लंगूर तथा और भी बड़े हुए तेज वाले कई करोड़ वानर उपस्थित होंगे। अत: अब आप अपने क्रोध को त्याग दीजिए। तारा ने जब इस प्रकार धर्म के अनुकूल विनययुक्त बात कही तब कोमल स्वभाव वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मणजी ने उसे मान लिया और क्रोध को त्याग दिया।

इस प्रकार स्पष्ट है कि तारा का चरित्र नारीत्व बुद्धिमत्ता और साहस का अद्भुत मिश्रण है। उनकी कहानी आज भी कई लोगों को प्रेरित करती है और रामायण के महिला पात्रों में से एक है।